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कविता

दीपावली गीत

राजेंद्र प्रसाद सिंह


गा मंगल के गीत सुहागिन !
चौमुख दियरा बाल के !

आज शरद की साँझ, अमा के
इस जगमग त्योहार में, -
दीपावली जलाती फिरती
नभ के तिमिरागार में,
चली होड़ करते तू, लेकिन
भूल न, - यह संसार है;
भर जीवन की थाल दीप से
रखना पाँव सँभाल के !

सम्मुख इच्छा बुला रही,
पीछे संयम-स्वर रोकते,
धर्म-कर्म भी बाएँ-दाएँ
रुकी देखकर टोकते,
अग-जग की ये चार दिशाएँ
तम से धुँधली दीखतीं;
चतुर्मुखी आलोक जला ले
स्नेह सत्य ता ढाल के!

दीप-दीप भावों के झिलमिल
और शिखाएँ प्रीति की,
गति-मति के पथ पर चलना है
ज्योति लिए नव रीति की,
यह प्रकाश का पर्व अमर हो
तमके दुर्गम देश में;
चमके मिट्टी की उजियाली
नभ का कुहरा टाल के !

 


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